गली में हींग या कोई जड़ी-बूटी बेच रहा एक इंसानों जैसा ही कोई प्राणी जोर-जोर से कुछ चिल्ला रहा था। धंसे गाल और काकरूपी टांगे होते हुए भी उसमें इतनी ऊर्जा पता नहीं कहां से आ रही थी। उसके अलावा किसी को यह पता नहीं चलता की वो बेच क्या रहा है। कोई नगर अथवा महानगर होता तो लोग नजरंदाज कर देते, लेकिन गांव के किसी गंजहे ने समय की परवाह किए बिना फुरसत से ज्ञान देना शुरू किया कि बेटा पहले अपना शरीर बनाओ, कसरत करो, बादाम मुनक्के खाओ फिर हींग वींग बेचना। ज्ञान देना उसका और उसके जैसे गांव के कइयों का मुख्य कार्य था। सब खाली समय में थोड़ी बहुत तस्करी भी कर लिया करते थे।
खुफिया विभाग के अफसरों को जब ये पता लगा कि देशभर में फैले गांजे का कारोबार का कनेक्शन उत्तर बिहार के किसी गांव से है तो उन्होंने अपने सबसे काबिल एजेंट को जासूसी के लिए भेजा। छद्मवेश में हींगवाला बने एजेंट ने पहले तो उस गंजहे की तबियत से मरम्मत की फिर ऐसे ही गांव के फक्कड़पन से प्रभावित होकर सरकारी दस्तावेजों में इस गांव का नाम बदलकर फुरसतपुर करा दिया।
काफी बरस बीते। कहते हैं नाम का बड़ा असर होता है। दुनिया जितनी तेजी से आगे बढ़ी, फुरसतपुर के लोग उतने ही धीमे होते गए। एक बार साल के आखिरी दिनों में सूरज भी अलसाया हुआ था। कभी कभार अगर थोड़ी धूप भी होती तो उसे बुड्ढे खाकर खत्म कर देते, कुर्सियों और खाटों पर पड़े-पड़े जाड़े की धूप की दिशा में खिसकते जाते लेकिन शाम होते फिर वापस घर लौट आते। बच्चे सुबह उठते, शोर करते, पिटते और फिर सो जाते । उन्ही दिनों बंटी की मन में यह इच्छा जगी कि इस साल फर्स्ट जनवरी मनाई जाए। बंटी के बार-बार कहने और नए साल की खुशी में मनोज और अन्य बच्चों ने उसका साथ देना सही समझा। पिकनिक के लिए गांव से पूरब एक बगीचे को चुना गया। चूंकि बगीचे का इस्तेमाल तपस्वियों द्वारा वेदनानाशक वनस्पतियों के सेवन हेतु भी किया जाता था, इसलिए यहां हर मौसम अखंड ज्योति जलती रहती। ईंधन के लिए पुआल भी भारी मात्रा में उपलब्ध था।
एक दर्जन अंडे 'उठाए' गए। उठाए इसलिए गए क्योंकि लाला मीठालाल अंडो का सौदा करने से तो नहीं हिचकिचाते थे लेकिन छूने से जरूर कतराते। धर्म के लिए वो इतना तो कर ही सकते थे। शायद इसीलिए उन्होंने हर महीने अंडो का भाव बढ़ाना भी शुरू कर दिया था। पिकनिक की बात सुन लाला का बेटा चंदन भी टोली के साथ हो लिया।
सूरज डूब चुका था। आगे का कार्य तेजी से बढ़ा। अखंड ज्योति से आग निकालकर ईंट से बने अस्थाई चूल्हे के मुंह में दी गई और पुआल की आपूर्ति जारी रहे इसका जिम्मा चंदन को दिया गया। पाकविज्ञान के नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए जो पहले हाथ आया उसे कड़ाही में फेंकना शुरू कर दिया गया। सबने कुछ न कुछ जरूर फेंका। किसी ने मसाले फेंके तो किसी ने हल्दी डाली। सर्द मौसम में चूंकि पुआल की आंच काफ़ी धीमी थी, खाना बनने में विलंब होना तय था। फुरसतपुर के परंपरानुसार, समय की भरपाई के लिए बाकी बच्चों ने बगीचे के दूसरे छोर पर आग जला ली, चारो तरफ बैठ के थोड़ी देर उछले फिर ऊंघने लगे। उधर चंदन अकेले चूल्हे में ईंधन झोंकते रहे। एक पहर बीता, खाने की बारी आई। चूल्हे के पास बैठे-बैठे चंदन शायद थक गए थे, थोड़ी दूर जाकर टहलने लगे। अंधेरे में उनकी परछाई पिशाचों को भी हनुमान चालीसा पढ़ने पर मजबूर करने वाली थी। करती भी क्यों नहीं?
यथा नाम, तथा गुण। नाम था चंदन, थे भी बिल्कुल लकड़ी। आप चलते तो हवाएं रुख बदलती। कुत्ते आपके पैरों को खंभा समझ मूत्रदान करते। बंदर आपको इंसान मानते और इंसान आपको बंदर। हाईस्कूल में आपको गुरुजनों का विशेष स्नेह प्राप्त था। इतिहास के मास्टर आपकी काया को मानव विकास के चरण समझाने के लिए इस्तेमाल करते और जीवविज्ञान की मैडम आपके तैंतीसो कशेरुक ऐसे प्रेमभाव से गिनतीं जैसे आपके अंदर ही तैंतीस कोटि देवों का वास हो।
अचानक जोर से कुछ आवाज आई। फिर कुत्ते जैसी एक मिमियाने की आवाज भी सुनाई दी। एक मासूम बच्चे ने अनुमान लगाया कि शायद बगल के गांव लंगड़पुर में गोली चली है। लेकिन मनोज इस आवाज को अच्छी तरह से जानता था। इस आवाज को उसने सिर्फ सुना ही नहीं बल्कि पितृ कृपा से चखा भी था। उसने यह बताने में देर नहीं की कि कहीं किसी को जुतिया दिया गया है। घटना क्रम कुछ ऐसा रहा। बंटी ने चंदन को दनादन दो-चार लगा दिए थे। चंदन बगल में उकड़ू होकर बैठे हुए थे। अभी और भी लगाता पर बाकी बच्चों ने उसे रोक लिया। कड़ाही में से दर्जन भर अंडे गायब थे। चंदन सिसकते हुए इसका आरोप आग के बगल में बैठे कुत्ते पर लगाते रहे, पर बंटी ने उनकी एक न सुनी थी।
अंडे किसने खाए इसका पता आज तक नहीं चल पाया।
रात भर मशाल लिए खाने की तलाश में हुआं-हुआं करते पुरखों को भी शायद ही अंदाजा होगा कि शताब्दियों बाद उनके उत्तराधिकारी वनभोज करते और आपस में लड़ते पाए जाएंगे।
How simply the story set in a village, is so captivating, rich in conveying the rituals, and habits of the land. Highlighted the nature of village Fursatpur- its name , how Fursatpur belonged to the natives and how these natives make Fursatpur, the Fursatpur.
"कभी कभार अगर थोड़ी धूप भी होती तो उसे बुड्ढे खाकर खत्म कर देते, कुर्सियों और खाटों पर पड़े-पड़े जाड़े की धूप की दिशा में खिसकते जाते लेकिन शाम होते फिर वापस घर लौट आते। बच्चे सुबह उठते, शोर करते, पिटते और फिर सो जाते।"
Liked the way simple words, reflected the feel of Fursatpur.
What truly stands out is the rawness of language. Simple, unembellished words carry a natural rhythm that mirrors rural life itself. The narrative doesn’t try to impress; it quietly immerses -- and that’s its biggest strength.
अंधेरे में उनकी परछाई पिशाचों को भी हनुमान चालीसा पढ़ने पर मजबूर करने वाली थी। करती भी क्यों नहीं?🙌🏻
कड़ाही में से दर्जन भर अंडे गायब थे। चंदन सिसकते हुए इसका आरोप आग के बगल में बैठे कुत्ते पर लगाते रहे, पर बंटी ने उनकी एक न सुनी थी।🎗️✨
Nostalgic feel, and fun read this was like I was reading my Hindi textbook amazing sir ! ✨🎗️