नेताजी जबसे दिल्ली से घर आए कुछ निराश से थे, उन्हें मायूस देख अगल बगल के दरबारियों में भी उदासी छा गई। पंद्रह वर्षों से सांसद रहते हुए भले ही नेताजी ने एक सड़क तक न बनवाई हो लेकिन उनके इर्द-गिर्द एक लघु उद्योग जरूर पनप गया था। माननीय नेताजी के ‘इमेज बिल्डिंग’ के लिए आमतौर पर जो कार्यक्रम होते, उसी में इन परजीवियों का निर्वहन भी शामिल था। प्रत्यक्ष पूछने पर किसी गंभीर प्रतिक्रिया की आशंका से सबने चुप रहना ही मुनासिब समझा।
दो-तीन दिनों बाद नेताजी अपने कार्यालय आए और गरजे, ‘‘निकम्मे हो सालों !” इन तीन जादुई शब्दों को सुनते ही दरबारियों ने कुछ राहत की सांस ली कि शायद पूरी बात पता चले। “सब के सब निकम्मे हो” नेताजी ने बोलना शुरू किया। “सदन में कितनी बेइज्जती हुई हमारी, कुछ पता भी है तुम्हें? पड़ोस के जिले का सांसद दस साल छोटा है हमसे और पता है कितने केस हैं उसपे? चालीस, और वो पार्टी अध्यक्ष जिसे हमीं राजनीति में लेकर आए जो पॉलिटिक्स इज नॉट फॉर मी, इट्स टू मेसी कहता रहता था, तीन साल में पंद्रह केस।”
हुआ यह था कि सदन में मजाक में किसी ने नेताजी को यह कह दिया कि अरे ये कैसे मंत्री बनेंगे ये तो साफ सुथरे छवि वाले हैं और यह सुनकर वहां मौजूद अन्य सांसद भी जोरों से हंस पड़े। माननीय के अंदर इतनी शक्ति तो थी नहीं की सबको मुंह पर कड़ा जवाब देते लिहाजा एक जबरदस्ती मुस्कान चिपकाए सदन से निकल पड़े और सीधा घर आके रुके। रास्ते भर उनके कान में “अरे ये तो साफ सुथरे छवि वाले हैं” और वो लकड़बग्घों वाली हंसी उनके कानों में गूंजती रही।
दरबारियों को कोसते हुए नेताजी बोले, “ सदन में किसी से कंधा भी टकराए तो वो हिस्ट्रीशीटर निकलता है और हम पर एक भी केस नहीं। शर्म से किसी से नजर नहीं मिला पाते।”
“लेकिन एक केस है ना सर” किसी ने दबी जबान में कहा। नेताजी ने देखा तो वो पार्टी के एक पुराने कार्यकर्ता थे जो अब दरबारी थे । नेताजी ने धीरे से खांस कर उन्हें चुप रहने का संकेत दिया लेकिन वो रुके नहीं और बोले, “वो सिनेमा हॉल वाला केस है ना सर!” नेताजी को जब लगा कि बात शायद खुल जाएगी तब जोर से बोले, “अरे! वो छोटा मोटा केस है।” “अरे! उससे नहीं होगा।”
किसी केस की संभावना सुन के दरबारियों की टोली उत्साहित हो उठी। अचानक मिले महत्व से कार्यकर्ता महोदय में भी एक शक्ति सी आई और एक ही सांस में विस्तार से सारी बात उगल बैठे।
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फरवरी का महीना ख़त्म होने को है, हल्की गुलाबी ठंड है। इंटरमीडिएट के परिणाम आए एक हफ्ते ही हुए हैं, अपेक्षा के अनुरूप युवा नेताजी सभी पर्चों में फेल हो गए हैं और मारे मारे फिर रहे हैं। इस विपदा को भुलाने के लिए मित्रमंडली में पिक्चर देखने की योजना बनती है। सभी सिनेमा हॉल जाते हैं।
फ़िल्म देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी है टिकट के दाम बढ़ गए हैं, लेकिन युवा नेताजी के पैसे नही हैं। अचानक उन्हें सूट बूट पहना हुआ एक व्यक्ति दिखता है, जो पहनावे से अमीर जान पड़ता है। युवा नेताजी का हाथ बरबस ही उसके बटुए पर चला जाता है; लेकिन ये खुशी लंबे समय तक नहीं रहती। अचानक ही वक्त बदलता है, जज्बात बदलती है ,भीड़ बेकाबू हो चुकी है, फ़िल्म से सबका ध्यान हट सा गया है। युवा नेताजी कूटे जा रहे हैं।
उनपर “पॉकेटमारी” की धारा लगती है। लेकिन किन्हीं कारणों से केस आगे नहीं बढ़ पता
कहानी ख़त्म होते ही नेताजी को लगा कि अब बनी बनाई इज्ज़त भी मिट्टी में मिल गई। सिर झुकाए पुराने जख्मों को याद कर ही रहे थे कि तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी, दरबारियों की आंखों में आंसू थे।
नेताजी को कुछ देर तक समझ ही नहीं आया कि ये उनका अपमान हो रहा या कुछ और। उनकी आशंका तब दूर हुई जब कार्यकर्ता महोदय बोले, “ यहीं तो हमारे पार्टी की मूल विचारधारा है, उस दिन जो आपने किया वो महज एक जेबकतरिकरण नहीं बल्कि पूंजीवादी ताकतों पर एक अबोध युवा का पहला प्रहार था। आज समूचा देश अर्थ के अनर्थों को झेल रहा है, जब तक हर युवा आपके रास्तों पर नहीं चलेगा तब तक समाजवाद नहीं आयेगा।”
ताली एक बार फिर बज पड़ी।
भावुक नेताजी ने मन ही मन मंत्री पद की आशा लिए जिले के एसपी को फोन लगाया और बंद हो चुके केस को खुलवाने को कहा।
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कुछ महीने बीते। एक दिन नेताजी कार्यालय से बाहर निकल ही रहे थे कि उनका पीए दौड़ता हुआ आया और बोला, “सर! दिल्ली से मेल आया है, कल ही निकलना होगा, आपको भ्रष्टाचार निरोध कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया है।” नेताजी को सदन वाली बात एक बार फिर याद आ गई, चेहरे पर गर्व और मुस्कान एक साथ लिए गाड़ी की तरफ़ बढ़ पड़े।
(Disclaimer: This satirical piece is a work of fiction and intended for creative imagination only. Any resemblance to real persons, living or dead, or actual events is purely coincidental. The author unequivocally condemns the criminalization of politics in any form.)