किसी तेज धमाके ने मुझे जगाया। मुझे तेज ठंड लग रही थी। आंखे कुछ देर तक बोझिल ही थीं। कमरे में बहुत थोड़ी रोशनी बची थी। शायद सुबह हो गई थी। मैंने जोर से चिल्ला के अपने नौकर को आवाज देना चाहा पर गले की खराश की वजह से कुछ बोल नहीं पाया। और पसलियों की दर्द ने मुझे कराहने पर मजबूर कर दिया।
सबसे ऊपर की मंजिल का मेरा वह छोटा सा कमरा आंगन की तरफ़ खुलता था। किसी तरह मैं बिस्तर से बाहर निकला और ख़ुद को लगभग घसीटते हुए आंगन की चाहरदीवारी पर ला पाया। नीचे समूचा आंगन तेज दियों की रोशनी से भरा हुआ था। ऐसे चमकीले दिए मैंने आज तक नहीं देखे थे। फिर ऊपर की ओर से आए एक तेज धमाके ने मुझे आसमान की ओर देखने पर विवश कर दिया।
एक तेज रोशनी आई और फिर मेरे देखते ही देखते वो अचानक बुझ गई। मैं थोड़ी देर सर और आंखों को मसलता हुआ सोचता रहा फिर मन ही मन बोल उठा, "ओह! तो आज दीपावली है और मैं सोता ही रह गया। और अभी सुबह नही शाम का समय है।"
दीवाली को कुलदेवता के मंदिर में दिए जलाने का काम मेरे हिस्से ही आता था। मंदिर घर के सामने ही पड़ता था। मैंने जल्दीबाज़ी दिखाई और सीढ़ियों की ओर बढ़ पड़ा, कम से कम आज के दिन मैं बाबूजी से डांट नहीं खाना चाहता था। सीढ़ियों से उतरते हुए मैने एक छोटे लड़के को अपने साथ ही, हाथ में दिए लिए उतरते देखा। मैं उसे नही जानता था। तीन मंजिले घर, जिसमे लगभग तीस सदस्य और कुछ नौकर, उनके बच्चे इत्यादि रहा करते थे उसमे इक्के दुक्के अनजान चेहरों का दिखना एक सामान्य बात थी।
भूदान में एक बड़े हिस्से के जाने के बावजूद हमारे परिवार के नाम क़रीब चार गांवों की संपत्ति अभी भी बची थी। सातवें दर्जे की पढ़ाई के बाद बाबूजी ने मुझे अपने भाइयों के पास कलकत्ते भेज दिया। कलकत्ते आते ही मैं बीमार पड़ गया। ज्वर उतरने का नाम ही नही ले रहा था। एक विलायती डॉक्टर ने मुझे गांव वापस लौटने की सलाह दी। मुझे अब भी याद है कि मुझे दुबला देख अम्मा रोयीं थीं और बाबूजी को यह सौगंध दिलाया था की मैं फिर कभी बाहर नहीं जाऊंगा। मैं न तो अपने बड़े भाइयों जितना पढ़ पाया और ना ही बाबूजी की नजरों में उनके जैसा सम्मान पा पाया। कारण यह कि मुझे गांव वालों को परेशान करने में बड़ा मजा आता था। आए दिन शिकायतों की वजह से बाबूजी मुझ पर जब भी गुस्सा होते,अम्मा बचा लेती थीं।
उस छोटे लड़के से बिना कुछ बात किए मैं नीचे आ गया। बरामदे में कई लोग एक बड़ी मेज के किनारे बैठे हुए थे। उनमें से मैं किसी को भी पहचान नहीं पाया। उनके सामने खाना परोसा जा रहा था। ऐसी मेजें और सूट बूट पहने ऐसे लोग मैंने कलकत्ते में ही देखे थे। कभी मैं आकर्षक लैंपो से सजी मेजों की ओर देख रहा था और कभी आसमान में जलती बुझती चिंगारियों को। बाबूजी, अम्मा और अपने परिवार वालों को ढूंढने की मंशा से मैं उनके सामने जा खड़ा हुआ। मैं काफ़ी देर तक वहां खड़ा रहा पर किसी ने मेरी ओर नहीं देखा।
थोड़ी देर बाद मुझे वही छोटा लड़का दिखा जिसे मैंने सीढ़ियों पर देखा था। वो काफी डरा हुआ लग रहा था। मैं उसके पीछे हो लिया। वह लड़का हाथ में दिया, एक बड़ा ही सुन्दर नक्काशीदार शीशा और खाने की एक थाली लिए कुलदेवता के मंदिर की ओर जाने लगा। मैं चिल्ला कर बहुत कुछ पूछना चाह रहा था, पर गले के दर्द ने मुझे फिर रोक लिया। मंदिर में उसने पहले सावधानी से खाने की थाली जमीन पर रखी, फिर मन ही मन कुछ बुदबुदाकर शीशा नीचे रख दिया। और वह वापस चला गया। दिए की वजह से मंदिर में थोड़ी रोशनी आ गई थी। मेरी दृष्टि बार- बार उस नक्काशीदार शीशे की ओर जा रही थी इसलिए उसके समीप जाकर अपनी परछाई बड़े ध्यान से देखने लगा। मेरी धड़कनें तेज हो गईं, पूरे बदन में एक बिजली की लहर सी कौंध गई। मुझे अपने गले पर ज़ख्म के निशान दिखाई दिए। नीचे देखा कि छाती के बाएं तरफ़ एक छुरा धंसा हुआ है। मैं रोने लगा। काफी देर रोने के बावजूद मेरे आंख सूखे रहे।
मैंने उस छुरे को निकालना भी चाहा पर मेरी उंगलियां उसे छू न सकीं। देर रात वही बैठ मैं आसमान की ओर देखता रहा। मेरी सांसे आश्चर्यजनक रूप से बंद थी। अभी तक मुझे ये समझ आ गया था की मैं इस दुनिया का हिस्सा नहीं हूं। फिर भी मैं घूम रहा था, एक परछाई की तरह।
(to be continued)