दस घंटे से ज्यादा का रेल का सफ़र थका देने वाला था।आंखें खुली तो पाया कि ट्रेन में शायद मैं अकेला ही था, सब उतर चुके थे। मुझे समझते देर नहीं लगी कि स्टेशन आ चुका था। आंखें मलते हुए मैने जोर से जंभाई ली और बैग का सारा भार कंधे पर डाल के बाहर निकल गया। बाहर घना अंधेरा था। रिक्शेवाले बेतरतीब कतारों में सो रहे थे, उनमें से एक-दो ने पूछने की कोशिश की। मैंने विनम्रता से उन्हें मना किया। कमरा ज्यादा दूर नहीं था इसलिए पैदल ही चल पड़ा। कलकत्ते आए हुए मुझे कुछ ही महीने हुए थे। नौकरी के बाद पहली पोस्टिंग कलकत्ता मुख्य डाकघर में हुई थी। अनजान शहर में उतना मन नहीं लगता था सो जब भी छुट्टी मिलती गांव हो आता।
सड़क थोड़ी गीली थी, हवा भी सर्द थी। आसमान में अभी बादल थे। चारों तरफ़ एक अजीबोगरीब शांति थी। ऐसा लगता कि दुर्गापूजा के बाद शहर भी अलसाया हुआ था। कमरे पर पहुंचा तो ध्यान आया कि रुप्पन बाबू को फोन करना तो भूल ही गया। अब दरवाजा कौन खोलेगा! हल्की बूंदा बांदी भी शुरू हो गई थी। कई बार चिल्लाने पर जब कोई जवाब नहीं आया तो मैं दरवाजे से ही पीठ सटाकर बैठ गया।
आलोक! आलोक!
किसी ने धीरे से मेरा नाम पुकारा। उस आवाज को मैं पहचान नहीं पाया। रुप्पन बाबू के मकान के ठीक सामने सड़क के उस पार एक घर की खिड़की पर कुछ हलचल हुई, देखा तो कोई हाथ से बुलाने का इशारा कर रहा है। नजदीक जाकर देखा तो कोई अजनबी ही था। कोई पचास पचपन की उम्र रही होगी। सफ़ेद शर्ट के ऊपर काली कोट और काली पैंट पहने कोई सरकारी आदमी जान पड़ता था।
"रुप्पन बाबू सो गए होंगे। आप अंदर तशरीफ लाइए। सुबह होने में कुछ ही वक्त बचा है। मेहमानखाने में एक बेड भी है, आप अगर चाहें तो आराम भी फरमा सकते हैं।"
ऐसे मित्रवत व्यवहार का मैं आदि नही था, थोड़ी देर तो यही सोचता रहा कि आजकल कौन ऐसे अजनबियों की मदद करता है। ये आदमी कोई सिरफिरा तो नहीं। अपने घर इतनी रात कोट पैंट में कौन रहता है? मैंने सीधे पूछना ही सही समझा। जो जवाब आया उससे मुझे थोड़ी तसल्ली हुई और अपने नकारात्मकता पर तरस भी आया। वो रेलवे में टीसी थे और सुबह ही उन्हें ड्यूटी पर निकलना था। उनके चाय के ऑफर को बड़े बेमन से ठुकराया और वहा रखी एक पुरानी सी कुर्सी पर बैठ उनकी बात सुनने लगा। टीसी साहब के पास कई तरह के किस्से थे। बातों ही बातों में काफी समय बीत गया। टीसी साहब भी यहां अकेले ही रहते थे। उनका परिवार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी गांव में रहता था। रिटायरमेंट को लेकर वो काफी उत्साहित थे। गांव जाकर रहना चाहते थे। थोपी हुई हंसी के पीछे छिपी उनकी गहरी उदासी भी कभी-कभी बाहर झांक ले रही थी।
बोलते ही बोलते वो अचानक चुप हो गए। कुर्सी से उठे और और अपने कलाई घड़ी की ओर देखा, एक गहरी सांस ली और थोड़े सकुचाते हुए कहा, "आपसे एक छोटी सी मदद चाहिए थी।"
मैंने तुरंत ही उनसे पूछा, "कहिए! क्या बात है?"
"एक मिनट" कहकर वो कुछ ढूंढने लगे।
कमरे के अंदर की चीजों पर मैने अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया था, मेरी नज़रें सड़क के पार रुप्पन बाबू के उठने और दरवाजा खुलने का इंतजार कर रही थीं। टीसी साहब के कमरे के अंदर कोई बत्ती न देख मुझे शुरू में ही थोड़ा आश्चर्य हुआ था, सड़क पर जल रही सरकारी बल्ब की रोशनी खिड़की से छन कमरे में आ रही थी। पूरा कमरा गैरजरूरी चीजों से भरा हुआ था। दीवारों के प्लास्टर उखड़े पड़े थे। मकड़ी के जालों और गर्द से भरे हुए कमरे में उदासीनता अपना घर बनाए हुई थी। कुछ किताबें और अखबार फर्श पर पड़े हुए थे। ऐसा लग रहा था जैसे सालों से किसी ने कुछ भी छुआ न हो।
किसी पुराने संदूकची के बंद होने के आवाज से मेरा ध्यान उस तरफ गया। टीसी साहब ने रबर में बंधे नोटों का एक बंडल मेरे हाथ में पकड़ा दिया। इससे पहले कि मैं कुछ पूछता, एक हाथ से अपने कोट की जेब में शायद कुछ टटोलने लगे। फिर एक कागज का टुकड़ा भी मेरी ओर बढ़ाया। मुड़े कागज पर उर्दू में कुछ लिखा हुआ था, जो मेरे समझ से बिलकुल परे था। फिर हाथ जोड़कर बोले, "ये कुछ पैसे हैं, कागज़ पर मेरे खानदान का पता है। अगर आप इस पर मनीऑर्डर कर दें तो बहुत मेहरबानी होगी।" यह कहकर टीसी साहब ने एक बार फिर अपनी घड़ी की ओर देखा और अचानक अंदर किसी दूसरे कमरे में चले गए। मैं पूरे घटनाक्रम को समझने की कोशिश ही कर रहा था कि बाहर रुप्पन बाबू की किसी से फोन पर जोर से बात करने की आवाज सुनाई दी, वो जाग गए थे। मैं भी थोड़ी जल्दी में था, बैग उठाया, पैसे और पता जेब में रखा और बाहर निकल पड़ा। बाहर रुप्पन बाबू ने देखते ही कहा, "अरे! आप कब आए? उस कबाड़खाने में क्या कर रहे थे?"
"कुछ नहीं, ऐसे ही कुर्सी पर बैठ के आपके ही एक पड़ोसी से कुछ बात और आपके नींद से जागने का इंतजार कर रहा था।" बोलते-बोलते मुझे एहसास हुआ कि मैंने टीसी साहब का नाम तो पूछा ही नहीं। मैंने तय किया कि जब मनीऑर्डर की रसीद देने जाऊंगा तब उनसे नाम पूछ लूंगा।
रुप्पन बाबू कुछ पल चुप रहे फिर गंभीरता से बोले, "पर वहां तो कोई रहता ही नहीं।"
"आठ दस साल पहले एक रहीम चाचा रहते थे। रेलवे में टीसी थे। रिटायरमेंट के कुछ दिन पहले ही ड्यूटी के दौरान ही उन्हें हार्ट अटैक आया और चल बसे। सरकारी मकान है, पुराना है, तबसे आज तक उसमे कोई रहने नहीं आया।”
मैं भाग कर फिर से अंदर गया। वहां कोई नहीं मिला।