दिन के हिस्से जो रवि है देवताओं की छवि है काश ख़ुद का सूर्य होता रजनी को उपहार देता.. "हटा के बेड़ियां भीतर के मन की करूं स्वीकार मैं आखेट वन की तपाऊं अग्नि में जब देह अपना किसी कोमल हृदय का भीत सपना "उछल के तोडूं मैं तारे गगन के करे हुंकार भीषण, तब अधर ये खींच कर धरती पर लाऊं, रात में सूरज जगाऊं *** किंतु संशय है सताता धैर्य मेरा कुछ गंवाता मेरी बढ़ती ख्वाहिशों पर एक अंकुश है लगाता। ये चाह कोई दंभ है या अभिमान का स्तंभ है? शक्ति से आसक्त क्या किसी भूल का आरंभ है? माना लिपटी स्याह रंग में किंतु शीतल स्नेह संग में दिन के हिस्से गर रवि हैं, रात के प्रीतम शशि हैं। पल में हरते प्राण तम के थोड़ा थोड़ा नित पिघल के प्रेम की भाषा यही है इसकी परिभाषा यही है। "धन्य है वो दिव्य शक्ति, रजनी को शशि से मिलाता। किंतु अपना ध्यान रे मन! तू है नभ में क्यूं लगाता? "मद में लिपटा तू विवश है पृथ्वी पर क्या तेरा वश है? व्यर्थ यह दु:स्वप्न, तोड़ो! आज ये अभिमान छोड़ो! "सत्य, अंधियारा है नभ में है अमावस रात काली क्या धरा तम से अछूती? बोल तेरे क्यूं हैं खाली? भूख, हिंसा, ज़र, गरीबी तम के गृहस्वामी जटिल हैं नित परस्पर भेद करते जग में कुछ प्राणी कुटिल हैं। "सुन! मनुज का वंश है तू जान! शिव का अंश है तू कर्म से बलवान बन और त्याग से धनवान बन तू। "कर्म का बस ये नियम है त्याग का बस ये धरम है है अचल यदि तू गरल में स्व न्यौछावर एक पल में तो ही शिव को पाएगा तू युगपुरुष कहलाएगा तू। *** "वंचितों का ढाल बनके मैं नसों में अग्नि भर लूं मौन की आवाज़ बनके आज ही यह घोष कर दूं, "प्रण ये करना चाहता हूं सुधर्म धरना चाहता हूं सत्कर्म शोभित स्वर्णपथ पर अब पग मैं भरना चाहता हूं।"
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