ट्रेन किसी छोटे से स्टेशन से गुजर रही थी। बनारस आने में अभी दो घंटे बाक़ी थे। अमर की नजर खिड़की से बाहर पेड़ों कि झुरमुट में छिपते निकलते सांझ के सूरज पर टिक गई। एक धुंधली हुई याद उसके जेहन में कौंधी —जिसमें एक छोटा अमर अपनी अम्मा की गोद में बैठा पहली बार ट्रेन से अपने ननिहाल जा रहा था। ऐसी जीवंत याद कि पल भर के लिए वो भूल ही बैठा कि वह कितना उदास और बेचैन है। ट्रेन की तेज़ और चिड़चिड़ी हॉर्न ने उसे वापस वर्तमान में लौटने पर मजबूर कर दिया।
अमर ने मन ही मन सोचा कि काश ये सफ़र ऐसे ही चलता रहे क्यूंकि जिस परिस्थिति से वह गुजर रहा था वह प्रेम, अन्तर्द्वंद और दुःख का ऐसा मिश्रण था जिसको समझ पाना उसके बस की बात नहीं थी। उसने एक हसीन वहम चुना जिसमें अब भी सबकुछ ठीक था क्योंकि उसमें इस सच को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं थी जिसमें बिन्नू उससे दूर, बहुत दूर जा रही थी। पूरे रास्ते उसके मन में पिछले तीन सालों की तमाम यादें ताज़ी होनी शुरू हो गईं।
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“गांव के लड़कों का यहीं प्रॉब्लम है भाई। भरी जवानी तक लड़कियों से बात नहीं करेंगे और एक बार अगर यूनिवर्सिटी में किसी लड़की ने बात कर ली फिर तो….. काम ही खत्म! स्वयं ब्रह्मा भी आकर बोले कि बेटा ये तेरे भाग्य में लिखा ही नहीं मैने… फिर भी दिन रात महादेव के चरणों में लोटते रहेंगे…. कि बाबा बस अब आप ही है। भक्ति के फील्ड में भी पैरवी….धन्य है प्रभु!
“अमर बाबू! ये जो कलक्टरई का सपना पाले बनारस आए हैं ना…फुर्र हो जाएगा। संभलिए जरा।”
“अरे का हुआ? काहे अमर बाबू को लताड़ रहे हैं गुरु? सब ठीक है, ये तुमसे काफ़ी समझदार है? क्यों अमर बाबू?”
अमर की मुस्कुराहट और जबरदस्ती थोपी गई चुप्पी ये बता रही थी कि बात अब काफी दूर निकल पड़ी थी और अब उसने महादेव के चरणों में लोटने का प्रण कर लिया था।
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“कोई जल्दी है?”
“नहीं!”
“इतने तेज भागे चल रहे हैं। हमने सोचा कहीं कोई बहुत जरूरी काम होगा। बता दिए होते, किसी और दिन अस्सी आने का प्लान कर लेते।”
अमर झेंप सा गया। उसने धीरे-धीरे अपनी चाल धीमी की और बड़ी सावधानी से कि कहीं फिर से आगे ना निकल जाए, बिन्नू के साथ घाट की तरफ़ बढ़ने लगा।
बिन्नू की आँखें कभी अमर तो कभी दूर क्षितिज पर निकल रहे सूरज पर ठहर जाती। उसके छोटे से हृदय में एक नन्हा सुषुप्त फूल करवटें बदलने लगा था। कभी वजह, तो कभी बिना वजह लगातार हंस रही बिन्नू की खिलखिलाहट दूर मंदिरों में बज रहे घंटियों के बीच छिपती उभरती रही। अमर बिना पलक झपकाए, सुर्ख लाल किरणों में कुछ और ज़्यादा खिल रहे बिन्नू के गोल, बेइंतहा खूबसूरत चेहरे को चुपचाप देखता रहा। उसके पूरे बदन में एक सिहरन सी दौर गई, गंगा की लहरों कि तरह आंसू उसकी आंखों के किनारों को छूकर वापस लौट गए। ये अनुभव ईश्वरीय था।
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“कुछ खाया? उफ्फ! स्वेटर भी नहीं पहना। और कितने दुबले हो गए हो!”
आस-पास कौतूहल से देख रहे लोगों कि परवाह किए बिना, प्लेटफॉर्म पर अमर के उतरते ही, बिन्नू ने सवालों की झड़ी लगा दी। इससे पहले कि अमर कुछ जवाब दे पाता, बिन्नू बेजार रोने लगी।
अमर ने बिन्नू का हाथ जोर से अपनी ओर खींचा और अपने क़रीब लाकर अपनी बाहों में भींचते हुए बोलने कि कोशिश की कि, “सब ठीक ………!” आखिरी के कुछ शब्द उसकी टूटती हुई सांस में गुम हो गए थे।
फ़लक में टूट रहे एक तारे को देख बिन्नू ने भी अपनी आँखें बंद कर ली। उसके गोल चेहरे पर चांदी सी कुछ बूंदे गिर आईं थी।
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“इस बार नौकरी लग जाती तो कितना अच्छा होता! अब तो सब भोले बाबा के हाथ में है।”, अम्मा के इस वाक्य को सैकड़ों बार सुन चुका अमर अब नौकरी, और परिणामों की बात आते ही असहज हो उठता था।
उसका कलेजा सुन्न पड़ जाता। यह आंतरिक उद्वेग कि परिवार के सारे दुखों और तमाम काल्पनिक सुखों के बीच की दीवार उसका सफल होना ही है, उसके लहू की गति को शिथिल बनाने के लिए काफी थी।
कॉलेज के बाद के कुछ दिनों तक तो अमर के बाबूजी नौकरी के लिए दी जाने वाली परीक्षाओं और परिणामों को लेकर बेहद उत्सुक रहते थे। पर उनकी उत्सुकता अमर के निरंतर असफलताओं के बाद प्रार्थना और फ़िर बाद में एक शांत निराशा में तब्दील होती जा रही थी।
अमर के कहीं जाने की बात सुनकर उनके आंखों में सुलग उठती चमक इस बात की गवाही देती कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपने बेटे में उनका विश्वास अब भी अटूट बना हुआ था।
स्टेशन पर छोड़ने के बाद उन्होंने अमर से सिर्फ दो टूक पूछा, “कब तक वापस आओगे!” इससे पहले अमन कुछ कहता वो फिर से बोल पड़े, “ध्यान रखना! तुम्हारा खुश रहना ज्यादा जरूरी है हमारे लिए। एग्जाम वगैरह तो अपने अपने नसीब की बात है!”
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कालचक्र का पहिया एक ऐसे मोड़ पर आ रुका था जिसमें दोनों को अलग अलग रास्ते चुनने थे। आगे की पढ़ाई के लिए बिन्नू आज रात दिल्ली जा रही थी। वहीं अमर अपने गांव में ही रहकर सरकारी नौकरी की तैयारी करने वाला था।
बिन्नू के लाए हुए टिफिन से पराठे का आखिरी टुकड़ा तोड़कर चुपचाप और बिल्कुल धीरे निगलते हुए अमर की नज़र उसके के चेहरे पर रुक गई। व्याकुल पर शांत, शाश्वत और निश्चल प्रेम में सराबोर चेहरा। जीवन से भरी हुई बिन्नू की शीतल आँखें जो कुछ ही देर पहले छलक आई थीं, उसे संबल दे रही थीं। उन्हें एकटक निहारते अमर को ये अनुभव हुआ कि अब सच में सबकुछ ठीक हो जाएगा।
(क्रमशः)