पश्चिम में सूरज अस्ताचल पर्वत के सतहों में पिघलने लगा था। अंधेरे और बची खुची लालिमा के बीच संघर्ष से भयभीत खगों ने अब कूहना बंद कर दिया था। कुटिया के समीप गोवंशो की क्रीड़ा भी समापन की ओर अग्रसर थी। दिन की चकाचौंध से मूक हुए नर्मदा के स्वर अब फूटने लगे थे। संध्या ध्यान में बैठे मिलिंद ने आंखें खोल एक गहरी श्वास छोड़ी और नर्मदा के अंतहीन तट की ओर देखा। सूर्य भले ही अस्त हो चुका था परंतु उसके चेहरे का तेज देख यह प्रतीत होता था, मानो दिनकर ने ही पुरुषार्थ के सम्मान में अपना एक हिस्सा उस पर छोड़ दिया हो। उसके चेहरे पर आकृतियां अचानक बदल सी गईं जब उसने देखा कि तट के किनारे किनारे अश्वरोहियों का एक समूह इसी दिशा में चला रहा था। घोड़ों के टापों ने स्थिर पड़ी रेत को ही नहीं बल्कि वहां पसरी आभा को भी क्रूरता से रौंदना शुरू कर दिया था। किसी विघ्न की आशंका उसके हृदय में उठ खड़ी हुई, वह स्फूर्ति से कुटिया के अंदर गया। थोड़ी देर बाद वह एक अस्त्र हाथ में ले बाहर आया और पाषाणी भंगिमा में आगंतुकों की प्रतीक्षा करने लगा।
घुड़सवार नजदीक आ गए थे। उनके हाथ में पताकाएं थी। नीले चौकोर वस्त्र के टुकड़े पर बनी चंद्राकार आकृतियों से आगंतुकों के मित्रवत होने का प्रमाण मिलते ही चेहरे पर अचरज का भाव लिए मिलिंद ने जोर से उनके आने का प्रयोजन पूछा। प्रत्युत्तर में उसे बताया गया कि राजकुमारी नंदिनी उससे मिलने आईं है।
मिलिंद का हृदय जोर जोर से धड़कने लगा।
राजकुमारी! रात्रि के इस पहर। क्या कोई संकट आ पड़ा? किसी विपदा ने घेर लिया? मेरा मन स्थिर क्यों नहीं रह पा रहा? मन को शैल के समान स्थिर करने में निपुण होने के बाद भी मेरी यह दशा क्यों होती जा रही है? इससे पहले की वह कुछ और सोचता नंदिनी उसके सामने आ खड़ी हुई। वो नंदिनी के चेहरे की ओर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
दूसरी ओर नंदिनी के हृदय में भी एक अंतरयुद्ध चल रहा था। जहां एक तरफ मृगया से सहम के भागी हुई हिरणी की कातरता थी वहीं शिकार से पहले किसी शांत शेरनी जैसी स्थिरता उसे खूंखार बनाए जा रही थी। पुर में हुई सारी घटनाएं उसके आंखों के सामने बिजली की भांति घूम गई। बीते महीने राज्योत्सव के समय जब चक्रवर्ती सम्राट ने पुर में युद्ध कौशल की प्रतियोगिता आयोजित कराई थी तब नंदिनी को विश्वास था कि उसके सौगंध दिलाने से मिलिंद प्रतियोगिता में अवश्य ही भाग लेगा। परन्तु मिलिंद ने जिस निर्दयता से उसके हृदय की कामना को रौंदा था उसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। जिस नंदिनी की मोहक छवि आर्यावर्त के रत्न कहे जाने वाले कवियों की प्रेरणा हुआ करती थी उसके इतने सुंदर होने का क्या लाभ यदि वो अपने प्रिय को एक छोटा कार्य करने के लिए भी ना मना सके। नंदिनी ने कभी नहीं सोचा था कि कालचक्र का पहिया ऐसी स्थिति पर आ रुकेगा और उसे एक बार फिर इस कठोर हृदय मिलिंद के सामने आने को विवश होना पड़ेगा। मिलिंद पर एकटक ध्यान लगाए वह सोचने लगी, "हाय! कैसी स्थिति कर रखी है अपनी? और वनवासियों जैसे केश भी बढ़ा लिए हैं इसने। हे शिव! मैंने मन ही मन प्रतिशोध के जितने भी यतन सोच रखे थे वो करुणा में क्यों बदल रहे हैं? पर मुझे अभी संयम रखना होगा। राज्य पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, मुझे मिलिंद से मदद मांगनी होगी।"
"पिताश्री को सेनापति काटक ने बंदी बना लिया है। राजसी षड्यंत्र के बीच मैं कुछ विश्वासी अंगरक्षकों के साथ आपके पास चली आयी। हे द्विज पुत्र, मैं आपके प्रण से भली भांति परिचित हूं। शिव की सौगंध, मेरी ये तनिक भी इच्छा नहीं थी कि मैं आपके तपस्या में विघ्न डालूं। परन्तु पितृ मोह ने मुझे यहां आने को विवश कर दिया। छल, कपट और विश्वासघात के इस वातावरण में मैंने आपके अतिरिक्त किसी अन्य का आश्रय लेना उचित नहीं समझा।"
राजकुमारी का कांपती आवाज में याचना करना मिलिंद को हृदय में शूल की भांति धंसता प्रतीत हुआ। उसने धीमे परन्तु स्पष्ट आवाज में नंदिनी से कहा, "आर्यपुत्री! आप शीघ्र ही मेरी कुटिया की ओर चलें। इस षड्यंत्र से चक्रवर्ती सम्राट को कैसे बचाना है ये मैं आपको वहीं समझाता हूं।"
(क्रमशः)